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Tuesday, February 3, 2015

बड़े शहर - बड़ी बाते और गाँव के लोग - भाग 1

भाग 1  : बड़े शहरों की और  

बहुत दिनों से सोच रहा था की कुछ लिखु किन्तु जब भी लिखना शुरू करता … तो कुछ  पंक्तियों के बाद ऐसा लगता की अब क्या लिखू कही कोई ऐसा तो नहीं सोचेगा....... कही कोई वैसा तो नहीं कहेगा.... फिर ये भी विचार आता की ये लेखक  लोग कैसे लिख लेते है इतना सारा … जरूर कोई दैवीय  शक्ति इनमे होती होगी। (जरूर होती है। ....... माँ  सरसवती का आशीर्वाद की शक्ति होती है ) कही कोई मजाक तो नहीं उड़ायेगा। …… कल का छोकरा आज लिखना भी सिख गया है…… (ये मेरा बचपन का दब्बूपन है जो मुझे हर बार कुछ भी नया  करने से रोकता है ) हमेशा से यह कह कर रोक गया की ऐसा मत करो....... वैसा मत करो…… ज़माने से डरो। …।  हमने  ज़माने से डरते डरते पढाई पूरी की (A ctually पढाई तो पूरी हुयी ही नहीं थी..........) फिर बहुत ही नाटकीय ढंग से दिल्ली की और रुख किया....... अरे बाबा रे.............   जैसे ही दिल्ली   पहुंचे तो क्या  देखते है…। आप खुद अनुमान लगा सकते है की एक साधारण गाँव से आया हुआ बहुत ही शर्मीला सा गाँव का छोकरे की क्या हालत हुई होगी। …… इतनी चौड़ी सड़कें........... गाँव की टूटी हुयी आधी कच्ची सड़क का ख्याल आया …………  सायकिल से शहर जाने के  दौरान कितनी ही बार  कोहनियाँ छिलवायी थी। .  यहाँ  तो 6 लेन की सड़क एक तरफ थी। …… इतने सारे लोग .... कभी किसी बारात में भी नहीं देखे होगे .............  मेरे एक चाचाजी यहाँ मिलिटरी में थे… (गाँव में अगर कोई आपका पड़ोसी शहर में रहता हो तो वो आपका सबसे पहला डेस्टिनेशन होता है शहर  मे.... )…… जैसे तैसे दिल्ली केंट से उनके ऑफिस पहुंच गए. ……… वे सी एस डी  केन्टीन में पोस्टेड थे। ……। ऑफिस  के बाहर  दो कमांडो खड़े थे ...... मेरे हाथ में गाँव का साधारण सा थैला देख कर कड़क आवाज  में बोले  …… कहाँ  से आये हो ?? किससे मिलना है… मेरी हालत तो पहले से ही पतली थी। ………। डरते डरते बोला .... ज़ी मेरे अंकल यहाँ पोस्टेड है… सी एस डी मे… मुझे उनसे मिलना है.... में उनके गाव से आया हु। …… खैर अंकल का नाम सुनकर उनका रुख जरा सा नरम हुअ.... बोले बैठ जा छोरे। … अभी वो ऑफिस से निकलने ही वाले है.... फिर उन्होंने अंदर अंकल को फ़ोन किया सायद अंकल ने उनको बोल दिया था की उसे वहां बैठा लो अभी आता हु……।  सर्दियों की शाम के 4 बज रहे थे तभी चाय आ गयी। .... एक कमांडो ने बोला पिले  भाई ....... तुम्हारे अंकल  अभी आ रहे है.…………।  में चाय पीते हुए अपने भविष्य के बारे में सोच रहा था.…… कितने अरमान लेकर माँ बाबा ने मुझे घर से कमाने के लिए भेजा था। ....... एक्चुअली घर में से आज तक कोई भी बाहर कमाने नहीं निकला था ना ............... बाबा ने तो ज्यादा कुछ उम्मीद नहीं लगायी थी फिर भी मन में टीस तो थी ही की मेरे घर से भी एक जन कमाने के लिए बाहर जाये क्योकि लगभग सभी घरों में कोई न कोई बाहर था।  गाँव में अगर आपके घर का कोई पुरुष बाहर देश में कमाता है तो बड़ी बात होती है।  कुछ लेनदेन करना हो तो आराम से हो जाता है।  "अपना बाबू पैसा भेजेगा तो वापस कर देंगे।" ऐसा बोल कर कितने ही काम आराम से निकाल लिए जाते थे।  लेकिन मेने तो अभी तक अपनी पढाई भी पूरी नहीं थी अभी तक इसलिए पता नहीं कैसी नौकरी लगने वाली थी या फिर यू कहु की क्या में भी अपने माँ बाबा के अरमानो को पूरा कर पाउगा या फिर बाकि औरो की तरह केवल अपना पेट भर पाने लायक कमा पाउगा। 
खैर ड्यूटी पूरी करके अंकल  बाहर आये.……  मैने  चरण स्पर्श किये और हम सेना की बड़ी वाहन में बैठ कर महिपालपुर आ गये…  अंकल ने यहाँ पर एक कमरा ले रखा था जिसमे वे अपने दूसरे साथी के साथ रहते  थे।
ये एक हरयाणवी सज्जन का घर था जिसके दो बेटे थे। .... दोनों बेटे किसी प्राइवेट कंपनी में काम करते ठे.... एक बूढी माँ थी और वे खुद थे।  ये एक चार कमरो का घर था जिसके आगे एक छोटा सा आँगन था।  गेट में घुसते ही दायी  और। लेट बाथ बने हुए थे आँगन में एक सिरस का बहुत पुराना दरख़्त था जो अपनी आधी पीली पत्तियों से आँगन में खुशिया बिखेरता रहता था। हरयाणवी सज्जन की पत्नी एक बुजुर्ग महिला थी जिसने इस हिंदुस्तान के दोनों दौर देखे थे।  आजादी के पहले और बाद … दोनों समय का कालांतर उनकी बूढी आँखों में साफ साफ देखा जा सकता था।  पुराना खद्दर का पहनावा उनके व्यक्तित्व को बुजुर्गियत का एक नया आयाम देता था।   अंकल ने उन चार में से बायीं और सबसे आखरी वाला कमरा ले रखा था जिसका किराया 4 हजार रुपये प्रति माह था।  आज से ये ही मेरा अस्थायी ठिकाना था..... कमरा 12 X 12 का था जिसमे आखरी में दो पट्टी डाल कर रसोई के जैसा बनाया हुआ था। . उसके थोड़ा सा और ऊपर पट्टी डाल कर सामान   रखने की टांड बनायीं हुयी थी। जरुरत भर के खाने के बरतन थे जो अंकल और उनके दोस्त ने पहले से खरीद कर रखे थे। 

जारी ………………